Menu
blogid : 24086 postid : 1186888

यादें बिस्मिल!!

Yade bismil!!
Yade bismil!!
  • 2 Posts
  • 1 Comment

वैसे तो ये हिन्दुस्तान्त वीरो की भूमि रहा है, क्रान्तिकारिो का नाम आते ही जेहन में भगत सिंह,राजगुरु,आजाद ,अशफाक आदि के नाम कौंधने लगते हैं, लेकिन पंडित राम प्रसाद “बिस्मिल” ने मुझे सबसे ज्यादा अपनी और खींचा।

इसका एक कारन ये भी हो सकता है क्योंकि उनकी आत्मकथा बहुत आसानी से उपलब्ध है, और उस आत्मा कथा में उन्होंने बड़ी बेबाकी से अपने बारे में लिखा है , जिससे उनकी एक छवि खुद बा खुद मन में घडती रहती है। बाकी क्रन्तिकरिो के बारे में हमें उतना ही पता है जितना दूसरों ने लिखा है।

मैं अपने इस लेख में उनके जनम ,कार्य आदि का उल्लेख नहीं करूंगा क्योंकि वो सब इंटरनेट में बड़ी आसानी से उपलब्ध है। अपितु मैं सिर्फ उनकी एक छवि आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूंगा जो उनके बारे में पढ़ने पर मेरे मन में बनी है , और जिसने मुझे प्रेरित किया की मैं उनके कुछ कम विदित प्रसंगों एवं कार्यो को प्रस्तुत करूं

शायर!
शायरी का मुझे कोई विशेष ज्ञान नहीं हैं , बस जो पंक्तिअ मन को अछी लगती हैं , उन्ही को दिल दोहराने लगता है , अगर मैं अपने इस फार्मूला के हिसाब से आगे बढु उनकी हर एक शायरी पे दिल वाह वाह कर उठे

मसलन नीचे की शायरी।

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !

दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !

मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,

उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !

ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,

फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !

शिव वर्मा ने अपनी किताब “संस्मृतिया ” में लिखा है की ऊपर की रचना बिस्मिल जी ने अपनी साथिओ के लिए उलाहना के तौर पे लिखे थी , जो की उन को जेल से छुड़ाने की देरी के लिए थी ।

अगर सरल शब्धो में कहूं तो बिस्मिल एक ऐसे बेहद सरल,भावुक पर धुन के पक्के इंसान थे जो अपना लक्ष्य जानते थे और उसकीे कोई भी कीमत चुकाने को हमेशा तैयार रहते थे।

देश को आजाद करने से बहे ड़ा और कोई कार्य नहीं हो सकता ये बात वो जान चुके थे और उसके लिए समर्पित थे ।

उनकी सरलता और निश्चलता का अंदाजा नीचे दिए प्रसंगों से लगाया जा सकता है (सौजन्य से गद्यकोष ,बिस्मिल की आत्मकथा)

” प्रयाग की एक धर्मशाला में दो-तीन दिन निवास करके विचार किया गया कि एक व्यक्‍ति बहुत दुर्बलात्मा है, यदि वह पकड़ा गया तो सब भेद खुल जाएगा, अतः उसे मार दिया जाये। मैंने कहा – मनुष्य हत्या ठीक नहीं। पर अन्त में निश्‍चय हुआ कि कल चला जाये और उसकी हत्या कर दी जाये। मैं चुप हो गया। हम लोग चार सदस्य साथ थे। हम चारों तीसरे पहर झूंसी का किला देखने गये। जब लौटे तब सन्ध्या हो चुकी थी। उसी समय गंगा पार करके यमुना-तट पर गये। शौचादि से निवृत्त होकर मैं संध्या समय उपासना करने के लिए रेती पर बैठ गया। एक महाशय ने कहा – “यमुना के निकट बैठो”। मैं तट से दूर एक ऊँचे स्थान पर बैठा था। मैं वहीं बैठा रहा। वे तीनों भी मेरे पास आकर बैठ गये। मैं आँखें बन्द किये ध्यान कर रहा था। थोड़ी देर में खट से आवाज हुई। समझा कि साथियों में से कोई कुछ कर रहा होगा। तुरन्त ही फायर हुआ। गोली सन्न से मेरे कान के पास से निकल गई ! मैं समझ गया कि मेरे ऊपर ही फायर हुआ। मैं रिवाल्वर निकालता हुआ आगे को बढ़ा। पीछे फिर देखा, वह महाशय माउजर हाथ में लिए मेरे ऊपर गोली चला रहे हैं ! कुछ दिन पहले मुझसे उनका झगड़ा हो चुका था, किन्तु बाद में समझौता हो गया था। फिर भी उन्होंने यह कार्य किया। मैं भी सामना करने को प्रस्तुत हुआ। तीसरा फायर करके वह भाग खड़े हुए। उनके साथ प्रयाग में ठहरे हुए दो सदस्य और भी थे। वे तीनों भाग खड़े हुए। मुझे देर इसलिये हुई कि मेरा रिवाल्वर चमड़े के खोल में रखा था। यदि आधा मिनट और उनमें से कोई भी खड़ा रह जाता तो मेरी गोली का निशाना बन जाता। जब सब भाग गये, तब मैं गोली चलाना व्यर्थ जान, वहाँ से चला आया। मैं बाल-बाल बच गया। मुझ से दो गज के फासले पर से माउजर पिस्तौल से गोलियाँ चलाईं गईं और उस अवस्था में जबकि मैं बैठा हुआ था ! मेरी समझ में नहीं आया कि मैं बच कैसे गया ! पहला कारतूस फूटा नहीं। तीन फायर हुए। मैं गद्‍गद् होकर परमात्मा का स्मरण करने लगा। आनन्दोल्लास में मुझे मूर्छा आ गई। मेरे हाथ से रिवाल्वर तथा खोल दोनों गिर गये। यदि उस समय कोई निकट होता तो मुझे भली-भांति मार सकता था। मेरी यह अवस्था लगभग एक मिनट तक रही होगी कि मुझे किसी ने कहा, ‘उठ !’ मैं उठा। रिवाल्वर उठा लिया। खोल उठाने का स्मरण ही न रहा। 22 जनवरी की घटना है। मैं केवल एक कोट और एक तहमद पहने था। बाल बढ़ रहे थे। नंगे पैर में जूता भी नहीं। ऐसी हालत में कहाँ जाऊँ। अनेक विचार उठ रहे थे।”

ऐसा नहीं है की बिस्मिल को हम आम आदमियों की तरह कभी निराशा नहीं हुई , आजादी की लड़ाई में साथ देने के लिए बड़े सरे नवयुवको ने उनका साथ दिया लेकिन अधिकतर मे उत्साह ज्यादा था , कई जगह बिस्मिल ठगे गए, कई बार पकडे जाने से बचे , कई बार निराश होके भी बैठे , पर मातृभूमि के लिए प्रेम इतना ज्यादा था की हर बार एक नयी शुरुआत करने बैठ जाते , हनुमान जी की तरह बस उन्हें याद करने की देर थी की हम गुलाम हैं और ये बेड़िया हमें तोड़नी है ।
अपने बार बार ठगे जाने पे बिस्मिल ने कुछ बेहतरीन शायरियां लिखी है

जिन्हें हम हार समझे थे गला अपना सजाने को
वही अब नाग बन बैठे हमारे काट खाने को!

“जिनको अपना हृदय, सहोदर तथा मित्र समझ कर हर तरह की सेवा करने को तैयार रहता था, जिस प्रकार की आवश्यकता होती यथाशक्‍ति उनको पूर्ण करने की प्राणपण से चेष्‍टा करता था, उनसे इतना भी न हुआ कि कभी जेल पर आकर दर्शन दे जाते, फांसी की कोठरी में ही आकर संतोषदायक दो बातें कर जाते ! एक-दो सज्जनों ने इतनी कृपा तथा साहस किया कि दस मिनट के लिए अदालत में दूर खड़े होकर दर्शन दे गए। यह सब इसलिये कि पुलिस का आतंक छाया हुआ था कि गिरफ्तार न कर लिये जाएं। इस पर भी जिसने जो कुछ किया मैं उसी को अपना सौभाग्य समझता हूँ, और उनका आभारी हूँ।”

वह फूल चढ़ाते हैं, तुर्बत भी दबी जाती
माशूक के थोड़े से भी एहसान बहुत हैं

जो भी हुआ, परमात्मा उनका भी भला करे। अपना तो जीवन भर यही उसूल रहा।

सताये तुझको जो कोई बेवफा, ‘बिस्मिल’।
तो मुंह से कुछ न कहना आह! कर लेना॥
हम शहीदाने वफा का दीनों ईमां और है।
सिजदे करते हैं हमेशा पांव पर जल्लाद के॥

एक और प्रसंग है जिसने मेरे दिल को सबसे ज्यादा छुआ है

“लखनऊ जेल में काकोरी के अभियुक्‍तों को बड़ी भारी आजादी थी। राय साहब पं० चम्पालाल जेलर की कृपा से हम कभी न समझ सके कि जेल में हैं या किसी रिश्तेदार के यहाँ मेहमानी कर रहे हैं। जैसे माता-पिता से छोटे-छोटे लड़के बात बात पर ऐंठ जाते। पं० चम्पालाल जी का ऐसा हृदय था कि वे हम लोगों से अपनी संतान से भी अधिक प्रेम करते थे। हम में से किसी को जरा सा कष्‍ट होता था, तो उन्हें बड़ा दुःख होता था एक रात्रि को तैयार होकर उठ खड़ा हुआ। बैरक के नम्बरदार तो मेरे सहारे पहरा देते थे। जब जी में आता सोते, जब इच्छा होती बैठ जाते, क्योंकि वे जानते थे कि यदि सिपाही या जमादार सुपरिण्टेंडेंट जेल के सामने पेश करना चाहेंगे, तो मैं बचा लूंगा। सिपाही तो कोई चिन्ता ही न करते थे। चारों ओर शान्ति थी। केवल इतना प्रयत्‍न करना था कि लोहे की कटी हुई सलाखों को उठाकर बाहर हो जाऊं। चार महीने पहले से लोहे की सलाखें काट ली थीं। काटकर वे ऐसे ढंग से जमा दी थीं कि सलाखें धोई गई, रंगत लगवाई गई, तीसरे दिन झाड़ी जाती, आठवें दिन हथोड़े से ठोकी जातीं और जेल के अधिकारी नित्य प्रति सायंकाल घूमकर सब ओर दृष्‍टि डाल जाते थे, पर किसी को कोई पता न चला ! जैसे ही मैं जेल से भागने का विचार करके उठा था, ध्यान आया कि जिन पं० चम्पालाल की कृपा से सब प्रकार के आनन्द भोगने की स्वतन्त्रता जेल में प्राप्‍त हुई, उनके बुढ़ापे में जबकि थोड़ा सा समय ही उनकी पेंशन के लिए बाकी है, क्या उन्हीं के साथ विश्‍वासघात करके निकल भागूं? सोचा जीवन भर किसी के साथ विश्‍वासघात न किया। अब भी विश्‍वासघात न करूंगा। उस समय मुझे यह भली भांति मालूम हो चुका था कि मुझे फांसी की सजा होगी, पर उपरोक्‍त बात सोचकर भागना स्थगित ही कर दिया। “

बिस्मिल के आदर्शो ने मुझे काफी ज्यादा भावुक और सोचने पे मजबूर कर दिया की क्या कोई ऐसा आदमी तो भी हो सकता है , जो बार बार धोका खा के भी, फिर भरोसा करने को तैयार रहता हो , और अपितु उसके लिए कोई द्वेष भी न रखता हो , यहां तो कोई हमें एक बार पैसे देना भी भूल गया हो तो भी हम उसका उदाहरण ले के किसी अगले की मदद न करने का मन बन लेते हैं , और यहां ये आदमी इतने धोको और छलावों के बाद भी उनकी भलाई की कामना कर रहा है।

भगत सिंह और बिस्मिल में फ़र्क़ बस इतना लगा मुझे , की हर कोई भगत सिंह नहीं हो सकता , भगत सिंह सोच विचार,तर्क वितरक हर चीज में सबसे अलग थे , जैसे की स्कूल कॉलेज में कोई एक अत्यन्त मेधावी छात्र अलग सा ही दिख जाता है , उनके विपरीत मुझे लगता है की बिस्मिल हम सब में कहीं न कहीं है, एक ऐसा आदमी जो सरल है , जो भावुक है , जो ईमानदार है , जिसने लाख दुःख उठा के भी कभी किसी को उसका जिम्मेदार नहीं समझा , अपितु खुद को इस धरती मां का सेवक समझा ।
हमें गर्व है की बिस्मिल जैसे महँ करन्तिकरिो ने इस देश में जनम लिया ,
उनके ही शब्दों में

मरते ‘बिस्मिल’ ‘रोशन’ ‘लहरी’ ‘अशफाक’ अत्याचार से
होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh